Search This Blog

1 Mar 2019

स्टेशन का बेंच

  सुबह के नौं बजने को था , वो रात से ही बेचैन था । जल्दी से तैयार होकर नास्ता किया , पीठ पर कॉलेज बैग लिया , घड़ी पहनी और बस पकड़ने को चल दिया ।
 आह ! क्या मौसम है आज सारा कुछ नया सा लग रहा हैं , चाय की दुकान , शोर - शराबे , हाथ रिक्सा , गाड़ियों की ककर्श सीटी , ट्रैफिक ,
 पर आज इनमें भी उमंगें थी , मिठास थी । वो बस पकड़ के सीधा स्टेशन जा पहुँचा और टिकट काटकर इंतजार करने लगा , ट्रेन का 1 प्लेटफॉर्म पर आज कुछ ज़्यादा ही भीड़ थी , किताबों के स्टॉल सजे थे , फलवाली टोकरियों में फल सजाए बैठी थी ,
  लोग ख़ुद में ही मशगूल थे । आज काफी गर्मी लग रही थी , पर इस गर्मी में भी नरमीपन सा अहसास था । ट्रेन रुकी , सिर्फ 5 मिनट को , वो जल्दी से दाख़िल हुआ और खिड़की के पास जा बैठा ।
  ट्रेन सरपट दौड़ने लगी , एक - एक स्टेशन पीछे छुटने लगे । पेड़ भी मानों ट्रेन के साथ दौड़ लगा रहे हों । हर स्टेशन पर ट्रेन रूकती , लोग उतरते और कुछ चढ़ते । ये एक घंटे का सफर मानों सदियों सा लग रहा था । क्यों गाड़ियों के स्पीड सीमित होते है , काश 330 किलोमीटर/ ऑवर के रफ्तार से चलती तो कितनी जल्दी वो पहुँच चुका होता । आख़िरकार वो अपनी मंज़िल तक पहुँच ही गया , मल्लिकपुर स्टेशन ।
वो जल्दी से पहले से तय स्थान पर पहुँचा , और इंतजार करने लगा । आज एक - एक मिनट घंटो सा लग रहा था , कब चार बजे , कब समय जल्दी से बीते । वह इसी तरह बैठा रहा कुछ सोचता रहा ।
जैसे - जैसे समय बीत रहा था इसकी धड़कने तेज़ होती जा रही थी , आख़िरकार दो घंटे बाद स्टेशन के दूसरे छोर पर एक मनमोहक आकृति नज़र आई , काले लंबे बाल , गोरा चेहरा , भूरी आँखे और सदा की तरह होंठो पर तैरते मुस्कान । यही वो है , जिससे मिलने वो इतनी दूर तक चला आया ,
  अपनों के परवाह किये बग़ैर । उसके पास आते ही जैसे अगल - बगल की आबो- हवा एकदम बदल गई नशे में झुमादेनेवाली , दिल को मदहोश कर देनेवाली खुशबू , उसके बदन से आ रही थी । ये तो जैसे खो ही गया । दोनों पास ही लगे लकड़ी के कत्थई रंग के बेंच पर जा बैठे । कुछ बोलते बन न पड़ता था , दोनों एक दूसरे की आँखों में खोने लगे शब्दों की दरकार न थी ,
 आँखों ही आँखों में सारा कुछ तय हो रहा था । साँसों से महसूस किया जा रहा था । पर आज आँखों में उल्लास की जगह नमी और चेहरे पर उदासी छाने लगी । वो धीरे - धीरे सिसकियाँ लेने लगी । ये देखकर समझ गया , ख़ुदा ने आख़िर अपना खेल दिखा ही दिया । वही हुआ जिसकी कल्पना मात्र से इसका दिल मोतियों की तरह टुटकर बिखर जाता था । दिल में जो उमंगे थीं , आशाएँ थी , जो सपने थे वो पल भर में उसके आसुओं ने धो दिए । अचानक सबकुछ बेरंग और बेरस लगने लगा । सजाए हुए सारे सपने टूट गए । घरवाले तैयार न थे ।

सुबह के नौ बजे हैं , वो जल्दी से तैयार होकर नास्ता किया और अपने पाँच साल के बेटे को स्कूल के लिए गाड़ी से छोड़ने चल दिया और उधर से ही अपने ऑफिस । आज बॉस ने मिटिंग बुलाई है , सारे शेयर होल्डर्स की । कंपनी एक नई फैक्ट्री शुरू करना चाहती है , सरकार के तरफ से भी ज़मीन और अनुमती मिल चुकी है । करीब दो घंटे की मिटिंग में बात पक्की कर ली गई और इसे उस प्रोजेक्ट के लिए चुना गया। दोपहर ढ़ाई बजे अपने बॉस के साथ वो जगह देखने चल दिया । करीब घंटे भर बाद वो पहुँचे , मल्लिकपुर स्टेशन -------अरे ! ये क्या । यहीं पर स्टेशन के पीछे खाली पड़ी ज़मीन पर फैक्ट्री लगनी थी ।
  वो गाड़ी से उतरकर सीधे स्टेशन जा पहुँचा । प्लेटफॉर्म पर घुमते हुए वो आगे की ओर बढ़ा तभी उसे वो बेंच दिखी , कत्थई रंग की , बदरंग , टूटी हुई । दस साल , एक लंबा समय , ज़िन्दगी ने न जाने कितने मोड़ लिए , कितने उतार चढ़ाव देखे । समय के तेज़ रफ्तार ने उन यादों पर धूल की एक मोटी परत ज़मा दी थी । जीवन के इस दौड़ में इसने ख़ुद को भुला ही दिया था , उन यादों को भी । पर आज इस बेंच को देखने के बाद वो पल इसकी आँखों के सामने फिर से जीवित हो उठे । इसके मन में एक हलचल सी पैदा हुई , दिल में एक टीस सी उठी । वो ख़ुद को रोक न पाया और बेंच पर जा बैठा । पर आज बगल में वो न थी । मन को एक गहरी उदासी ने घेर लिया एक खालीपन सा अहसास हुआ । जिस जगह वो बैठी थी , वहाँ इसने धीरे से अपना हाथ रखा और बोझल पलकें ख़ुद -ब -ख़ुद बंद हो गईँ ।

No comments:

Post a Comment

मिस्टर देसाई की पत्नी

मिस्टर देसाई एक ही मंजिल पर एक ही अपार्टमेंट में या यूँ कहे की  वो  मेरे फ्लैट के बगल में ही रहा करते थे। वो एक  40 साल के अधेड़ व्यक्ति थे...